Sunday 28 May 2017

पृथ्वीराज कपूर

पृथ्वीराज कपूर (अंग्रेज़ी:Prithviraj Kapoor) [जन्म: 3 नवंबर, 1906 पंजाब, पाकिस्तान (पहले भारत में) - मृत्यु: 29 मई, 1972 बंबई, महाराष्ट्र] हिंदी फ़िल्म और रंगमंच अभिनय के इतिहास पुरुष, जिन्होंने बंबई में पृथ्वी थिएटर स्थापित किया। भारतीय सिनेमा जगत के युगपुरुष पृथ्वीराज कपूर का नाम एक ऐसे अभिनेता के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपनी कड़क आवाज, रोबदार भाव भंगिमाओं और दमदार अभिनय के बल पर लगभग चार दशकों तक सिने दर्शकों के दिलों पर राज किया।
जीवन परिचय
शिक्षा
पृथ्वीराज ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लायलपुर और लाहौर (पाकिस्तान) में रहकर पूरी की। पृथ्वीराज के पिता दीवान बशेस्वरनाथ कपूर पुलिस विभाग में सब इंस्पेक्टर के रूप में कार्यरत थे। बाद में उनके पिता का तबादला पेशावर में हो गया। पृथ्वीराज ने अपनी आगे की पढ़ाई पेशावर के एडवर्ड कॉलेज से की। साथ ही उन्होंने एक वर्ष तक क़ानून की पढ़ाई भी की लेकिन बीच मे ही उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, क्योंकि उस समय तक उनका रुझान थिएटर की ओर हो गया था।
विवाह
पृथ्वीराज कपूर का महज 18 वर्ष की उम्र में ही विवाह हो गया और वर्ष 1928 में अपनी चाची से आर्थिक सहायता लेकर पृथ्वीराज कपूर अपने सपनों के शहर मुंबई पहुंचे।
कैरियर की शुरुआत

पृथ्वीराज कपूर 1928 में मुंबई में इंपीरियल फ़िल्म कंपनी से जुडे़ थे। वर्ष 1930 में बीपी मिश्रा की फ़िल्म 'सिनेमा गर्ल' में उन्होंने अभिनय किया। इसके कुछ समय पश्चात् एंडरसन की थिएटर कंपनी के नाटक शेक्सपियर में भी उन्होंने अभिनय किया। लगभग दो वर्ष तक फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करने के बाद पृथ्वीराज को वर्ष 1931 में प्रदर्शित फ़िल्म आलम आरा में सहायक अभिनेता के रूप में काम करने का मौक़ा मिला। वर्ष 1933 में पृथ्वीराज कपूर  कोलकाता  के मशहूर न्यू थिएटर के साथ जुड़े। वर्ष 1933 में प्रदर्शित फ़िल्म 'राज रानी' और वर्ष  1934 में देवकी बोस की फ़िल्म 'सीता' की कामयाबी के बाद बतौर अभिनेता पृथ्वीराज अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इसके बाद पृथ्वीराज ने न्यू थिएटर की निर्मित कई फ़िल्मों मे अभिनय किया। इन फ़िल्मों में 'मंजिल' 1936 और 'प्रेसिडेंट' 1937 जैसी फ़िल्में शामिल हैं। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फ़िल्म विद्यापति में पृथ्वीराज के अभिनय को दर्शकों ने काफ़ी सराहा। वर्ष 1938 में चंदू लाल शाह के रंजीत मूवीटोन के लिए पृथ्वीराज अनुबंधित किए गए। रंजीत मूवी के बैनर तले वर्ष 1940 में प्रदर्शित फ़िल्म 'पागल' में पृथ्वीराज कपूर अपने सिने कैरियर में पहली बार एंटी हीरो की भूमिका निभाई। इसके बाद वर्ष 1941 में सोहराब मोदी की फ़िल्म सिकंदर की सफलता के बाद पृथ्वीराज कामयाबी के शिखर पर जा पहुंचे।
पृथ्वी थिएटर की स्थापना
वर्ष 1944 में पृथ्वीराज कपूर ने अपनी खुद की थियेटर कंपनी पृथ्वी थिएटर शुरू की। पृथ्वी थिएटर में उन्होंने आधुनिक और शहरी विचारधारा का इस्तेमाल किया, जो उस समय के फारसी और परंपरागत थिएटरों से काफ़ी अलग था। धीरे-धीरे दर्शको का ध्यान थिएटर की ओर से हट गया, क्योंकि उन दिनों दर्शकों के उपर रूपहले पर्दे का क्रेज कुछ ज़्यादा ही हावी हो चला था। सोलह वर्ष में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए जिनमें पृथ्वीराज ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाया। पृथ्वी थिएटर के प्रति पृथ्वीराज इस क़दर समर्पित थे कि तबीयत ख़राब होने के बावजूद भी वह हर शो में हिस्सा लिया करते थे। वह शो एक दिन के अंतराल पर नियमित रूप से होता था। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे विदेश में जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेशकश की, लेकिन पृथ्वीराज ने नेहरू जी से यह कह उनकी पेशकश नामंजूर कर दी कि वह थिएटर के काम को छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते। पृथ्वी थिएटर के बहुचर्चित कुछ प्रमुख नाटकों में दीवार, पठान, 1947, गद्दार, 1948 और पैसा 1954 शामिल है। पृथ्वीराज ने अपने थिएटर के जरिए कई छुपी हुई प्रतिभा को आगे बढ़ने का मौक़ा दिया, जिनमें रामानंद सागर और शंकर जयकिशन जैसे बड़े नाम शामिल है। 
रंगमंच के पुरोधा
आकर्षक व्यक्तित्व व शानदार आवाज़ के स्वामी पृथ्वीराज कपूर ने सिनेमा और रंगमंच दोनों माध्यमों में अपनी अभिनय क्षमता का परिचय दिया हालांकि उनका पहला प्यार थिएटर ही था। उनके पृथ्वी थिएटर ने क़रीब 16 वर्षों में दो हज़ार से अधिक नाट्य प्रस्तुतियां कीं। पृथ्वी राज कपूर ने अपनी अधिकतर नाट्य प्रस्तुतियों मे महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। थिएटर के प्रति उनकी दीवानगी स्पष्ट थी। पृथ्वी थिएटर की नाट्य प्रस्तुतियों में सामाजिक जागरूकता के साथ ही देशभक्ति और मानवीयता को प्रश्रय दिया गया। वर्ष 1944 में स्थापित पृथ्वी थिएटर के नाटकों में यथार्थवाद और आदर्शवाद पर भी पर्याप्त ज़ोर दिया गया।
प्रमुख फ़िल्में

इसी दौरान पृथ्वीराज कपूर की मुग़ले आजम, हरिश्चंद्र तारामती, सिकंदरे आजम, आसमान, महल जैसी कुछ सफल फ़िल्में प्रदर्शित हुई। वर्ष 1960 में प्रदर्शित के. आसिफ की मुग़ले आजम में उनके सामने अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे, इसके बावजूद पृथ्वीराज कपूर अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म आसमान महल में पृथ्वीराज ने अपने सिने कैरियर की एक और न भूलने वाली भूमिका निभाई। इसके बाद वर्ष 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म तीन बहुरानियां में पृथ्वीराज ने परिवार के मुखिया की भूमिका निभाई, जो अपनी बहुरानियों को सच्चाई की राह पर चलने केलिए प्रेरित करता है। इसके साथ ही अपने पुत्र रणधीर कपूर की फ़िल्म कल आज और कल में भी पृथ्वीराज कपूर ने यादगार भूमिका निभाई। वर्ष 1969 में पृथ्वीराज कपूर ने एक पंजाबी फ़िल्म नानक नाम जहां है में भी अभिनय किया। फ़िल्म की सफलता ने लगभग गुमनामी में आ चुके पंजाबी फ़िल्म इंडस्ट्री को एक नया जीवन दिया।
पुत्र राज कपूर के साथ अभिनय
पचास के दशक में पृथ्वीराज कपूर की जो फ़िल्में प्रदर्शित हुईं उनमें शांताराम की दहेज 1950 के साथ ही उनके पुत्र राज कपूर की निर्मित फ़िल्म आवारा प्रमुख है। फ़िल्म आवारा में पृथ्वीराज कपूर ने अपने पुत्र राजकपूर के साथ अभिनय किया। साठ का दशक आते-आते पृथ्वीराज कपूर ने फ़िल्मों में काम करना काफ़ी कम कर दिया।
सम्मान और पुरस्कार
पृथ्वीराज को देश के सर्वोच्च फ़िल्म सम्मान दादा साहब फाल्के के अलावा पद्म भूषण तथा कई अन्य पुरस्कारों से भी नवाजा गया। उन्हें राज्यसभा के लिए भी नामित किया गया था
अंतिम समय

उनकी अंतिम फ़िल्मों में राज कपूर की आवारा (1951), कल आज और कल, जिसमें कपूर परिवार की तीन पीढ़ियों ने अभिनय किया था और ख़्वाजा अहमद अब्बास की 'आसमान महल' भी थी। एक अभिनेता और प्रतिभा पारखी के रूप में उनकी दुर्जेय प्रतिष्ठा मूल रूप से उनके शान्दार फ़िल्मी जीवन के पूर्वार्द्ध पर आधारित है। फ़िल्मों में अपने अभिनय से सम्मोहित करने वाले और रंगमंच को नई दिशा देने वाली यह महान् हस्ती का 29 मई, 1972 को इस दुनिया से रुखसत हो गए। उन्हें मरणोपरांत दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

दारा सिंह


दारा सिंह (अंग्रेज़ी: Dara Singh, जन्म:19 नवम्बर, 1928, अमृतसर - मृत्यु: 12 जुलाई, 2012 मुम्बई) अपने ज़माने के विश्व प्रसिद्ध फ्रीस्टाइल पहलवान और प्रसिद्ध अभिनेता थे। दारा सिंह 2003-2009 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। दारा सिंह ने खेल और मनोरंजन की दुनिया में समान रुप से नाम कमाया और अपने काम का लोहा मनवाया। यही वजह है कि उन्हें अभिनेता और पहलवान दोनों तौर पर जाना जाता है। उन्होंने 1959 में पूर्व विश्व चैम्पियन जार्ज गार्डीयांका को पराजित करके कॉमनवेल्थ की विश्व चैम्पियनशिप जीती थी। बाद में वे अमरीका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गये।
आरम्भिक जीवन
अखाड़े से फ़िल्मी दुनिया तक का सफ़र दारा सिंह के लिए काफ़ी चुनौती भरा रहा। बचपन से ही पहलवानी के दीवाने रहे दारा सिंह का पूरा नाम 'दारा सिंह रंधावा' है। हालांकि चाहने वालों के बीच वे दारा सिंह के नाम से ही जाने गए। 'सूरत सिंह रंधावा' और 'बलवंत कौर' के बेटे दारा सिंह का जन्म 19 नवंबर 1928 को  पंजाब के  अमृतसर  के धरमूचक (धर्मूचक्क या धर्मूचाक या धर्मचुक) गांव के जाट-सिख परिवार में हुआ था। उस समय देश में अंग्रेज़ों का शासन था। दारा सिंह के पिताजी बाहर रहते थे। दादाजी चाहते कि बडा होने के कारण दारा स्कूल न जाकर खेतों में काम करे और छोटा भाई पढाई करे। इसी बात को लेकर लंबे समय तक झगड़ा चलता रहा।
पहलवानी का शौक
दारा सिंह को बचपन से ही पहलवानी का शौक़ था। अपनी किशोर अवस्था में दारा सिंह दूध व मक्खन के साथ 100 बादाम रोज खाकर कई घंटे कसरत व व्यायाम में गुजारा करते थे। कम उम्र में ही दारा सिंह के घरवालों ने उनकी शादी कर दी। नतीजतन महज 17 साल की नाबालिग उम्र में ही एक बच्चे के पिता बन गए लेकिन जब उन्होंने कुश्ती की दुनिया में नाम कमाया तो उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरी शादी सुरजीत कौर से की। दारा सिंह के परिवार में तीन पुत्रियाँ और तीन पुत्र हैं।
कुश्ती में कैरियर
दारा सिंह अपने ज़माने के विश्व प्रसिद्ध फ्रीस्टाइल पहलवान रहे। साठ के दशक में पूरे भारत में उनकी फ्री स्टाइल कुश्तियों का बोलबाला रहा। दारा सिंह को पहलवानी का शौक़ बचपन से ही था। बचपन अपने फार्म पर काम करते-करते गुजर गया, जिसके बाद ऊंचे क़द मजबूत काठी को देखते हुए उन्हें कुश्ती लड़ने की प्रेरणा मिलती रही। दारा सिंह ने अपने घर से ही कुश्ती की शुरूआत की। दारा सिंह और उनके छोटे भाई सरदारा सिंह ने मिलकर पहलवानी शुरू कर दी और धीरे-धीरे गांव के दंगलों से लेकर शहरों में कुश्तियां जीतकर अपने गांव का नाम रोशन करना शुरू कर दिया और भारत में अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश में जुट गए। दारा सिंह ने अखाड़े में पहलवानी सीखी। उस दौर में दारा सिंह को राजा महाराजाओं की ओर कुश्ती लड़ने का न्यौता मिला करता था। हाटों और मेलों में भी कुश्ती की और कई पहलवानों को पटखनी दी।
राष्ट्रीय चैंपियन
भारत की आज़ादी के दौरान 1947 में दारा सिंह सिंगापुर पहुंचे। वहां रहते हुए उन्होंने 'भारतीय स्टाइल' की कुश्ती में मलेशियाई चैंपियन त्रिलोक सिंह को पराजित कर कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजयी रथ अन्य देशों की ओर चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़कर वे 1952 में भारत लौट आए। क़रीब पांच साल तक फ्री स्टाइल रेसलिंग में दुनिया भर (पूर्वी एशियाई देशों) के पहलवानों को चित्त करने के बाद दारा सिंह भारत आकर सन 1954 में भारतीय कुश्ती चैंपियन (राष्ट्रीय चैंपियन) बने। दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहां फ्रीस्टाइल कुश्तियां लड़ी जाती थीं।
विश्व चैंपियन
इसके बाद उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैंपियन किंग कॉन्ग को भी धूल चटा दी। दारा सिंह की लोकप्रियता से भन्नाए कनाडा के विश्व चैंपियन जार्ज गार्डीयांका और न्यूजीलैंड के जॉन डिसिल्वा ने 1959 में कोलकाता में कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में उन्हें खुली चुनौती दे डाली। नतीजा वही रहा। यहां भी दारा सिंह ने दोनों पहलवानों को हराकर विश्व चैंपियनशिप का ख़िताब हासिल किया। कॉमनवेल्थ चैपियनशिप के बाद दारा सिंह का मिशन था पूरी दुनिया को अपना दम-खम दिखाना। भारत के इस पहलवान ने दुनिया के लगभग हर देश के पहलवान को चित किया। आख़िरकार अमेरिका के विश्व चैंपियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैंपियन बन गए। कुश्ती का शहंशाह बनने के इस सफर में दारा सिंह ने पाकिस्तान के माज़िद अकरा, शाने अली और तारिक अली, जापान के रिकोडोजैन, यूरोपियन  चैंपियन बिल रॉबिनसन, इंग्लैंड के चैपियन पैट्रॉक समेत कई पहलवानों का गुरूर मिट्टी में मिला दिया। 1983 में कुश्ती से रिटायरमेंट लेने वाले दारा सिंह ने 500 से ज़्यादा पहलवानों को हराया और ख़ास बात ये कि ज़्यादातर पहलवानों को दारा सिंह ने उन्हीं के घर में जाकर चित किया। उनकी कुश्ती कला को सलाम करने के लिए 1966 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-पंजाब और 1978 में रुस्तम-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा गया।
दारा सिंह ने क़रीब 36 साल तक अखाड़े में पसीना बहाया और अब तक लड़ी कुल 500 कुश्तियों में से दारा सिंह एक भी नहीं हारे, जिसकी बदौलत उनका नाम ऑब्जरवर न्यूजलेटर हॉल ऑफ फेम में दर्ज है। दारा सिंह की कुश्ती के दीवानों में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत कई दूसरे प्रधानमंत्री भी शामिल थे। सही मायने में दारा सिंह कुश्ती के दंगल के वो शेर थे, जिनकी दहाड़ सुनकर बड़े-बड़े पहलवानों ने दुम दबाकर अखाड़ा छोड़ दिया।
फ़िल्मी करियर
लगभग 60 साल तक दारा सिंह ने हिंदुस्तान के दिल पर राज किया है। आज की पीढ़ी को शायद अंदाज़ा भी ना हो कि अखाड़े से अदाकारी के मैदान में उतरे दारा सिंह बॉलीवुड के पहले ही मैन माने जाते हैं। वो टारजन सीरीज़ की फ़िल्मों के हीरो रहे हैं। दारा सिंह अपनी मजबूत क़द काठी की वजह से फ़िल्मों में आए। फ़िल्म अभिनेत्री मुमताज़ का कैरियर संवारने में भी सबसे बड़ा सहारा दारा सिंह का साथ ही साबित हुआ। बॉलीवुड में बॉडी दिखाकर स्टारडम पाने का रास्ता ना खुलता, अगर दारा सिंह ना होते। जी हां, बॉलीवुड में आज हर सुपरस्टार पर शर्ट खोलकर मसल्स दिखाने की जो धुन सवार है, उसका चलन शुरू हुआ था दारा सिंह के जरिए। जिस वक़्त पूरी दुनिया में दारा सिंह की पहलवानी का सिक्का चल रहा था, तब 6 फीट 2 इंच लंबे इस गबरू जट्ट पर बॉलीवुड इस कदर फ़िदा हुआ कि पहलवान दारा सिंह बन गए अभिनेता दारा सिंह। दारा सिंह ने अपने समय की मशहूर अदाकारा मुमताज़ के साथ हिंदी की स्टंट फ़िल्मों में प्रवेश किया और कई फ़िल्मों में अभिनेता बने। दारा सिंह ने मुमताज़ के साथ 16 फ़िल्मों में काम किया। यही नहीं कई फ़िल्मों में वह निर्देशक व निर्माता भी बने। दारा सिंह ने कई हिंदी फ़िल्मों का निर्माण किया और उसमें खुद हीरो रहे।
पहली फ़िल्म

दारा सिंह की पहली फ़िल्म 'संगदिल' 1952 में रिलीज़ हुई, जिसमें दिलीप कुमार और मधुबाला मुख्य भूमिकाओं में थे। 1955 में वो फ़िल्म 'पहली झलक' में पहलवान बनकर आए, जिसमें मुख्य किरदार किशोर कुमार और वैजयंती माला ने निभाया था। कुश्ती और फ़िल्मों में एक साथ मौजूदगी दर्ज़ कराते रहे दारा सिंह की बतौर हीरो पहली फ़िल्म थी 'जग्गा डाकू', जिसके बाद वो बॉलीवुड के पहले एक्शन हीरो के तौर पर छा गए।
मुख्य फ़िल्में
दारा सिंह की असल पहचान बनी 1962 में आई फ़िल्म ‘किंग कॉन्ग’ से। इस फ़िल्म ने उन्हें शोहरत के आसमान पर पहुंचा दिया। ये फ़िल्म कुश्ती पर ही आधारित थी। किंग कांग के बाद 'रुस्तम-ए-रोम', 'रुस्तम-ए-बग़दाद', 'रुस्तम-ए-हिंद' आदि फ़िल्में कीं। सभी फ़िल्में सफल रहीं। मशहूर फ़िल्म आनंद में भी उनकी छोटी-सी किंतु यादगार भूमिका थी। उन्होंने कई फ़िल्मों में अलग-अलग किरदार निभाए हैं। वर्ष 2002 में 'शरारत', 2001 में 'फर्ज', 2000 में 'दुल्हन हम ले जाएंगे', 'कल हो ना हो', 1999 में 'ज़ुल्मी', 1999 में 'दिल्लगी' और इस तरह से अन्य कई फ़िल्में।
मुमताज़ से जुगलबंदी
अपने 60 साल लंबे फ़िल्मी कैरियर में दारा सिंह ने 100 से ज्यादा फ़िल्मों में काम किया जिनमें सबसे ज्यादा 16 फ़िल्में अभिनेत्री मुमताज़ के साथ की। मुमताज़ के साथ दारा सिंह की जोड़ी बनी 1963 में फ़िल्म 'फौलाद' से। शोख-चुलबुली मुमताज़ और ही मैन दारा सिंह की जोड़ी का जादू क़रीब पांच साल तक सिल्वर स्क्रीन पर छाया रहा। दारा सिंह और मुमताज़ ने 'वीर भीमसेन', 'हरक्यूलिस', 'आंधी और तूफान', 'राका', 'रुस्तम-ए-हिंद', 'सैमसन', 'सिकंदर-ए-आज़म', 'टारज़न कम्स टु डेल्ही', 'टारज़न एंड किंगकांग', 'बॉक्सर', 'जवां मर्द' और 'डाकू मंगल सिंह' समेत क़रीब डेढ़ दर्ज़न फ़िल्मों में साथ काम किया।
फ़िल्म निर्माता-निर्देशक
कुश्ती के बाद दारा सिंह को सबसे ज़्यादा प्यार फ़िल्मों से ही रहा। उन्होंने मोहाली के पास 'दारा स्टूडियो' बनाया और ढे़र सारी फ़िल्में भी। उन्होंने पहली फ़िल्म बनाई अपनी मातृभाषा पंजाबी में 'नानक दुखिया सब संसार'। भक्ति भावना वाली यह फ़िल्म जबर्दस्त हिट रही। इसके बाद 'ध्यानी भगत', 'सवा लाख से एक लडाऊं' व 'भगत धन्ना जट्ट' आदि फ़िल्मों का निर्माण भी उन्होंने किया। दारा सिंह ने हिंदी और पंजाबी में 8 फ़िल्में निर्मित कीं, 8 फ़िल्मों का निर्देशन किया और 7 फ़िल्मों की कहानी भी खुद ही लिखी। सौ से ज़्यादा फ़िल्मों में अदाकारी कर चुके दारा सिंह की आख़िरी यादगार फ़िल्म थी 2007 में इम्तियाज अली की फ़िल्म 'जब वी मेट', जिसमें उन्होंने करीना कपूर के दादाजी का किरदार निभाया। वो आख़िरी दम तक फ़िल्मों में जुड़ा रहना चाहते थे, लेकिन बढ़ती उम्र और बिगड़ती सेहत साथ नहीं दे रही थी, लिहाज़ा दारा सिंह ने 2011 में लाइट-कैमरा और एक्शन को अलविदा कह दिया।
धारावाहिक रामायण में हनुमान
कोई एक किरदार कैसे किसी की मुकम्मल पहचान बदल देता है, इसकी मिसाल हैं दारा सिंह। सीरियल रामायण में हनुमान के किरदार ने उन्हें घर-घर में ऐसी पहचान दी कि अब किसी को याद भी नहीं कि दारा सिंह अपने ज़माने के 'वर्ल्ड चैंपियन पहलवान' थे। ये वो किरदार है, जिसने पहलवान से अभिनेता बने दारा सिंह की पूरी पहचान बदल दी। 1986 में रामानंद सागर के सीरियल रामायण में दारा सिंह हनुमान के रोल में ऐसे रच-बस गए कि इसके बाद कभी किसी ने किसी दूसरे कलाकार को हनुमान बनाने के बारे में सोचा ही नहीं। रामायण सीरियल के बाद आए दूसरे पौराणिक धारावाहिक महाभारत में भी हनुमान के रूप में दारा सिंह ही नज़र आए। 1989 में जब 'लव कुश' की पौराणिक कथा छोटे परदे पर उतारी गई, तो उसमें भी हनुमान का रोल दारा सिंह ने ही किया। 1997 में आई फ़िल्म 'लव कुश' में भी हनुमान बने दारा सिंह।
विभिन्न धार्मिक चरित्र
1964 में फ़िल्म 'वीर भीमसेन' में दारा सिंह ने भीम का रोल निभाया। अगले साल आई फ़िल्म 'महाभारत' में भी दारा सिंह ही भीम बने। 1968 में फ़िल्म 'बलराम श्रीकृष्ण' में दारा सिंह कृष्ण के बड़े भाई बलराम की भूमिका में नज़र आए। 1971 में फ़िल्म 'तुलसी विवाह' में दारा सिंह पहली बार भगवान शिव के रोल में सामने आए। भगवान शिव की भूमिका उन्होंने 'हरि दर्शन' और 'हर-हर महादेव' में भी निभाई। दारा सिंह को पहली बार हनुमान बनाया निर्माता-निर्देशक चंद्रकांत ने। 1976 में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'बजरंग बली' में दारा सिंह हनुमान की भूमिका में थे। इस फ़िल्म में तब तक चॉकलेटी हीरो विश्वजीत राम के रोल में थे, जबकि लक्ष्मण की भूमिका शशि कपूर ने निभाई और रावण बने थे प्रेमनाथ। 'बजरंग बली' रिलीज़ होने के बारह साल साल बाद जब रामायण सीरियल शुरू हुआ, तो रामानंद सागर के जेहन में हनुमान के रोल को लेकर कोई दुविधा नहीं थी। वो पूरी तरह इस बात से सहमत थे कि हनुमान की भूमिका के लिए दारा सिंह से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता।
सम्मान और उपाधि
·         1966 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-पंजाब का ख़िताब से नवाजा गया।
·         1978 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-हिंद के ख़िताब से नवाजा गया।
निधन
दारा सिंह का 84 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से 12 जुलाई 2012 को निधन हुआ। इस प्रकार एक सफल पहलवान, एक सफल अभिनेता, निर्देशक और निर्माता के तौर पर दारा सिंह ने अपने जीवन में बहुत कुछ पाया और साथ ही देश का गौरव बढ़ाया।


Thursday 25 May 2017

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क

कॉर्बेट नेशनल पार्क वन्य जीव प्रेमियों के लिए एक स्वर्ग है जो प्रकृति माँ की शांत गोद में आराम करना चाहते हैं। पहले यह पार्क (उद्यान) रामगंगा राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता था परंतु वर्ष 1957 में इसका नाम कॉर्बेट नेशनल पार्क (कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान) रखा गया। इस पार्क का नाम प्रसिद्द ब्रिटिश शिकारी, प्रकृतिवादी और फोटोग्राफर जिम कॉर्बेट के नाम पर रखा गया। 
1918 से 1926 तक गढ़वाल में 500 वर्गकिलोमीटर के इलाके में सूर्यास्त के बाद मातम जैसा सन्नाटा पसर जाता था. हर कोई घर के भीतर बंद हो जाता था. बाहर निकलने का मतलब था मौत. रुद्रप्रयाग के इलाके में सक्रिय नरभक्षी तेंदुआ दूर दूर तक शिकार करता रहा. आठ साल में उसने 125 लोगों को अपना निवाला बनाया. तेंदुआ इतना शातिर था कि वो एक दिन नदी के इस ओर शिकार करता तो दूसरे दिन दूसरी तरफ. लोगों को लंबे वक्त तक लगता रहा कि इलाके में दो नरभक्षी सक्रिय हैं.
नरभक्षी तेंदुए के आतंक की खबरें ब्रिटेन के अखबारों में आए दिन छपने लगीं. ब्रिटेन की संसद में भी उसकी चर्चा होने लगी. कई शिकारी और आर्मी के स्पेशल यूनिटों के हाथ नाकामी लगी. 90 से ज्यादा लोगों की मौत के बाद उत्तर प्रदेश के गवर्नर ने नैनीताल के मशहूर शिकारी जिम कॉर्बेट से संपर्क किया. 1925 को उन्हें तेंदुए को मारने की इजाजत मिली.

लोग जानते थे कि चंपावत की नरभक्षी बाघिन को मारने वाले कॉर्बेट ही इस आदमखोर को भी ठिकाने लगा पाएंगे. चंपावत की आदमखोर बाघिन ने कुमाऊं और नेपाल में करीब 430 लोगों को मारा था. तेंदुए को मारने की अनुमति लेने के बाद कॉर्बेट कई दिनों की पैदल यात्रा कर कुमाऊं से गढ़वाल पहुंचे. वहां पहुंचने के बाद भी उन्हें शातिर तेंदुए तक पहुंचने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी. दूसरी तरफ तेंदुआ आए दिन लोगों को अपना शिकार बनाता जा रहा था. आखिरकार 26 मई 1926 की रात जिम कॉर्बेट को कामयाबी मिल गई. गोली लगते ही तेंदुआ अंधेरे में ओझल हो गया. कुछ देर बाद वो जोर से गुर्राया और फिर हमेशा के लिए शांत हो गया. अगली सुबह रुद्रप्रयाग के पास पहाड़ की एक चोटी पर उसकी लाश मिली.
जिम कॉर्बेट ने जब उस बूढ़े तेंदुए को देखा तो पता चला कि उसका एक नुकीला दांत काफी पहले से टूटा हुआ था. पता चला कि दो नौसिखिये शिकारियों ने आठ-नौ साल पहले उस जवान तेंदुए का शिकार करने की कोशिश की. गोली उसके दांत में लगी और तब से वो जंगली जानवरों का शिकार कर पाने में असक्षम हो गया. भूख से बेहाल तेंदुए ने पेट भरने के लिए कोमल मांस वाले इंसान पर झपटना शुरू कर दिया.
सूर्योदय के वक्त तेंदुए की लाश के पास पहुंचे जिम कॉर्बेट ने उसे सहलाया. वहां पर कुछ फूल गिराये और कहा, हिमालय तुम्हें हमेशा अपनी गोद में सुलाये रखे.
तेंदुए की मौत देखकर कॉर्बेट इतने दुखी हुए कि उन्होंने वन्य जीवन को बचाने की मुहिम छेड़ दी. वो लगातार कहने लगे कि जानवरों के लिए अगर जंगल ही नहीं बचेगा तो वो क्या करेंगे. जिम कॉर्बेट की ही सलाह पर 1936 में ब्रिटिश सरकार ने उत्तराखंड में एशिया का पहला नेशनल पार्क बनाया. जिम कॉर्बेट के भारत छोड़कर केन्या जाने के बाद उनके मित्र और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने पार्क का नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया. यह आज दुनिया में बाघों का सबसे बड़ा बसेरा है.


यह राष्ट्रीय उद्यान विशाल हिमालय की तलहटी में स्थित है और अपने हरे भरे वातावरण के लिए जाना जाता है। भारत जंगली बाघों की सबसे अधिक आबादी के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्द है और जिम कॉर्बेट पार्क लगभग 160 बाघों का आवास है। यह रामगंगा नदी के किनारे स्थित है और यहाँ के आकर्षक पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने तथा साहसिक सफ़ारी के लिए पर्यटक यहाँ आते हैं।

Wednesday 24 May 2017

सुनील दत्त

सुनील दत्त (अंग्रेज़ी: Sunil Dutt, जन्म- 6 जून, 1929 गाँव खुर्दी, पंजाब (पाकिस्तान); मृत्यु- 25 मई, 2005, मुंबई) भारतीय सिनेमा में एक ऐसे अभिनेता थे जिनको पर्दे पर देख एक आम हिन्दुस्तानी अपनी ज़िंदगी की झलक देखता था। सुनील दत्त 2004-05 के दौरान भारत सरकार में युवा मामलों और खेल विभाग में कैबिनेट मंत्री भी रहे।सुनील दत्त का वास्तविक नाम बलराज रघुनाथ दत्त था।
जीवन परिचय
हिन्दी सिनेमा जगत में सुनील दत्त को एक ऐसी शख़्सियत के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने फ़िल्म निर्माण, निर्देशन और अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। उनके किरदार वास्तविक जीवन के बहुत क़रीब होते थे और उनका व्यक्तित्व भी उनके किरदार की तरह उज्ज्वल और प्रभावशाली रहा। सुनील दत्त का जन्म 6 जून1929 को पंजाब (पाकिस्तान) के झेलम ज़िले के खुर्दी गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सुनील दत्त बचपन से ही अभिनय के क्षेत्र में जाना चाहते थे। बलराज साहनी फ़िल्म इंडस्ट्री में अभिनेता के रुप में उन दिनों स्थापित हो चुके थे, इसे देखते हुए उन्होंने अपना नाम बलराज दत्त से बदलकर सुनील दत्त रख लिया। उनका बचपन यमुना नदी के किनारे मंदाली गाँव में बीता जो हरियाणा प्रदेश में है। सुनील दत्त इसके बाद लखनऊ चले गये और जहाँ पर वह अख्तर नाम से अमीनाबाद गली में एक मुसलमान औरत के घर पर रहे। कुछ समय बाद अपने सपनों को पूरा करने के लिए वह मुंबई चले गए
कार्यक्षेत्र
मुम्बई आकर सुनील दत्त ने मुंबई परिवहन सेवा के बस डिपो में चेकिंग क्लर्क के रुप में कार्य किया, जहाँ उनको 120 रुपए महीने के मिलते थे। फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए 1955 से 1957 तक सुनील दत्त संघर्ष करते रहे। हिन्दी सिनेमा जगत में अपने पैर जमाने के लिए वह ज़मीन की तलाश में एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो भटकते रहे थे। उसके बाद सुनील दत्त ने 'जय हिंद कॉलेज' में पढ़कर स्नातक किया। सुनील दत्त ने रेडियो सिलोन की हिन्दी सेवा के उद्घोषक के तौर पर अपना कैरियर शुरू किया था। जहाँ वह फ़िल्मी कलाकारों का इंटरव्यू लिया करते थे। एक इंटरव्यू के लिए उन्हें 25 रुपये मिलते थे। यह दक्षिण एशिया की पचास के दशक मे सबसे लोकप्रिय रेडियो सेवा थी।
विवाह

सुनील दत्त ने 'मदर इंडिया' फ़िल्म की शूटिंग के दौरान एक आग की दुर्घटना में नर्गिस को अपनी जान की परवाह किये बिना बचाया। इस हादसे में सुनील दत्त काफ़ी जल गए थे तथा नर्गिस पर भी आग की लपटों का असर पड़ा था। उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया और उनके स्वस्थ होकर बाहर निकलने के बाद दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया। नर्गिस 11 मार्च1958 में सुनील दत्त की जीवन संगिनी बन गई।
फ़िल्मी सफर की शुरुआत
सुनील दत्त की पहली फ़िल्म 'रेलवे प्लेटफॉर्म' 1955 में प्रदर्शित हुई, जिसमें उन्होंने अभिनेता के रूप में कार्य किया। अपनी पहली फ़िल्म से उन्हें कुछ ख़ास पहचान नहीं मिली। उन्होंने इस फ़िल्म के बाद 'कुंदन', 'राजधानी', 'किस्मत का खेल' और 'पायल' जैसी कई छोटी फ़िल्मों में अभिनय किया, लेकिन इनमें से उनकी कोई भी फ़िल्म सफल नहीं हुई।
मदर इंडिया
1957 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'मदर इंडिया' से सुनील दत्त को अभिनेता के रूप में ख़ास पहचान और लोकप्रियता मिली। उन्होंने इस फ़िल्म में एक ऐसे युवक 'बिरजू' की भूमिका निभाई जो गाँव में सामाजिक व्यवस्था से काफ़ी नाराज़ है और इसी की वजह से विद्रोह कर डाकू बन जाता है। साहूकार से बदला लेने के लिए वह उसकी पुत्री का अपहरण कर लेता है लेकिन इस कोशिश में अंत में वह अपनी मां के हाथों मारा जाता है। इस फ़िल्म में नकारात्मक हीरो का किरदार निभाकर वह दर्शकों के दिल में जगह बनाने में सफल रहे।
वक़्त (1965‌)
सुनील दत्त की सुपरहिट फ़िल्म 'वक़्त' 1965 में प्रदर्शित हुई। उनके सामने इस फ़िल्म में बलराज साहनीराजकुमारशशि कपूर और रहमान जैसे नामी सितारे थे, इसके बावज़ूद सुनील अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। सुनील दत्त के सिने करियर का 1967 सबसे महत्त्वपूर्ण साल साबित हुआ। उस साल उनकी 'मिलन', 'मेहरबान' और 'हमराज़' जैसी सुपरहिट फ़िल्में प्रदर्शित हुई, जिनमें उनके अभिनय के नए रूप देखने को मिले। इन फ़िल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेता के रुप में शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचे।
सुनील दत्त भारतीय सिनेमा के उन अभिनेताओं में से एक है जिनकी फ़िल्मों ने पचास और साठ के दशक में दर्शकों पर अमित छाप छोड़ी। 'मदर इंडिया' की सफलता के बाद उन्हें 'साधना' (1958), 'सुजाता' (1959), 'मुझे जीने दो' (1963), 'ख़ानदान' (1965 ), 'पड़ोसन' (1967 ) जैसी सफल फ़िल्मों से भारतीय दर्शको के बीच एक सफल अभिनेता के रूप में पहचान मिली। सुनील दत्त को निर्देशक बी. आर. चोपड़ा के साथ 'गुमराह' (1963), 'वक़्त' (1965 ) और 'हमराज़' (1967) जैसी फ़िल्मों में निभाई गई यादगार भूमिकाओं ने भी दर्शकों के बीच लोकप्रिय किया।
मल्टी स्टारर फ़िल्मों का अहम हिस्सा
सुनील दत्त के सिने करियर पर नज़र डालने पर पता लगता है कि वह मल्टी स्टारर फ़िल्मों का अहम हिस्सा रहे है। फ़िल्म निर्माताओं को ऐसी फ़िल्मों में जब कभी अभिनेता की ज़रूरत होती थी वह उन्हें नज़र अंदाज़ नहीं कर पाते थे। सुनील दत्त की मल्टीस्टारर सुपरहिट फ़िल्मों में 'नागिन', 'जानी दुश्मन', 'शान', 'बदले की आग', 'राज तिलक', 'काला धंधा गोरे लोग', 'वतन के रखवाले', 'परंपरा', 'क्षत्रिय' आदि प्रमुख हैं।
मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस
1993 में प्रदर्शित फ़िल्म 'क्षत्रिय' के बाद सुनील दत्त लगभग 10 वर्ष तक फ़िल्म अभिनय से दूर रहे। विधु विनोद चोपड़ा के ज़ोर देने पर उन्होंने 2007 में प्रदर्शित फ़िल्म 'मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस' में अभिनय किया। फ़िल्म में उन्होंने अभिनेता संजय दत्त के पिता की भूमिका निभाई। पिता-पुत्र की इस जोड़ी को दर्शकों ने काफ़ी पसंद किया। इस फ़िल्म के माध्यम से पहली बार पिता पुत्र (सुनील दत्त और संजय दत्त) एक साथ पर्दे पर नजर आए थे। हालांकि फ़िल्म 'क्षत्रिय' और 'रॉकी' में भी सीनियर और जूनियर दत्त ने साथ काम किया मगर एक भी दृश्य में वे साथ में नहीं थे।
फ़िल्म निर्देशन
फ़िल्म 'यादें' (1964) के साथ सुनील दत्त ने फ़िल्म निर्देशन में भी क़दम रखा। इस पूरी फ़िल्म में सिर्फ एक युवक की भूमिका थी जो अपने संस्मरण को याद करता रहता है। इस किरदार को सुनील दत्त ने निभाया था। उनकी यह फ़िल्म बहुत सफल नहीं रही, लेकिन भारतीय सिनेमा जगत के इतिहास में अपना नाम दर्ज करा गई।
फ़िल्म निर्माण
सुनील दत्त ने 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म 'यह रास्ते है प्यार के' के ज़रिए फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में भी क़दम रख दिया। यह फ़िल्म टिकट खिड़की पर ज़्यादा सफल नहीं रही। इस फ़िल्म के बाद सुनील दत्त ने फ़िल्म 'मुझे जीने दो' का निर्माण किया। यह फ़िल्म डाकुओं के जीवन पर आधारित थी। यह फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई। इसके बाद उन्होंने अपने भाई सोम दत्त को बतौर मुख्य अभिनेता फ़िल्म 'मन का मीत' में लांच किया। सोम दत्त का फ़िल्मी सफर बहुत सफल नहीं रहा। सुनील दत्त ने 1971 में अपनी महत्वकांक्षी फ़िल्म 'रेशमा और शेरा' का निर्माण और निर्देशन किया। इस फ़िल्म में उन्होंने भूमिका भी निभाई। यह एक पीरियड और बड़े बजट की फ़िल्म थी जिसे दर्शकों ने नकार दिया। निर्माता और निर्देशक बनने के बाद भी सुनील दत्त अभिनय से कभी ज़्यादा समय के लिए दूर नहीं रहे। सुनील दत्त की सत्तर और अस्सी के दशक में बनी फ़िल्में 'प्राण जाए पर वचन ना जाए' (1974), 'नागिन' (1976), 'जानी दुश्मन' (1979) और 'शान' (1980) में उनकी भूमिकाएँ पसंद की गयी। इस समय में सुनील दत्त धार्मिक पंजाबी फ़िल्मों से भी जुड़े रहे। जिनमें 'मन जीते जग जीते' (1973), 'दुख भंजन तेरा नाम' (1974 ), 'सत श्री अकाल' (1977) प्रमुख हैं।
राजनीति में
सुनील दत्त ने फ़िल्मों में कई भूमिकाएँ निभाने के बाद समाज सेवा के लिए राजनीति में प्रवेश किया और कांग्रेस के सहयोग से लोकसभा के सदस्य बने। साल 1968 में वह पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किए गए। सुनील दत्त को 1982 में मुंबई का शेरिफ नियुक्त किया गया। हिन्दी फ़िल्मों के अलावा सुनील दत्त ने कई पंजाबी फ़िल्मों में भी अपने अभिनय का जलवा दिखाया। इनमें 'मन जीते जग जीते' 1973, 'दुख भंजन तेरा नाम' 1974 और 'सत श्री अकाल' 1977 जैसी सुपरहिट फ़िल्में शामिल है।
नर्गिस की मृत्यु
1980 में सुनील दत्त ने अपने बेटे संजय दत्त को फ़िल्म 'रॉकी' में लांच किया। यह एक सुपरहिट फ़िल्म साबित हुई लेकिन फ़िल्म के प्रदर्शित होने के थोड़े समय के बाद ही उनकी पत्नी नर्गिस का कैंसर की बीमारी की वजह से देहांत हो गया। नर्गिस की कैंसर से हुई मृत्यु के कारण उन्हें इस बीमारी के प्रति सामाजिक जागरूकता के प्रति बढ़ने की प्रेरणा मिली। सुनील दत्त ने पत्नी की याद में 'नर्गिस दत्त फाउंडेशन' की स्थापना की। यह वो समय था जब सुनील दत्त सामाजिक कार्यक्रमों में ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगे।
सम्मान और पुरस्कार
·         1963 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार (मुझे जीने दो)
·         1965 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार (ख़ानदान)
·         1968 - पद्मश्री
·         1995 - फ़िल्मफ़ेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार
·         1997 - स्टार स्क्रीन लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार
·         2001 - ज़ी सिने लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार
·         2005 - फाल्के रत्न पुरस्कार
मृत्यु

हिन्दी फ़िल्मों के पहले एंग्री यंग मैन और राजनीतिक तौर पर एक आदर्श नेता सुनील दत्त का 25 मई, 2005 को हृदय गति रुकने के कारण बांद्रा स्थित उनके निवास स्थान पर देहांत हो गया। सुनील दत्त 'मदर इंडिया' के 'बिरजू' के रूप में या एक आदर्श नेता के तौर पर आज भी हमारे बीच मौज़ूद हैं।