रणबीर राज कपूर (जन्म- 14 दिसंबर, 1924, पेशावर, पाकिस्तान; मृत्यु- 2 जून, 1988, नई दिल्ली), हिन्दी फ़िल्म अभिनेता, निर्माता व निर्देशक थे। राज कपूर भारत, मध्य-पूर्व, तत्कालीन सोवियत संघ और चीन में भी अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
राज कपूर को अभिनय विरासत में ही मिला था। इनके पिता पृथ्वीराज अपने समय के मशहूर रंगकर्मी
और फ़िल्म अभिनेता हुए हैं। राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर ने अपने पृथ्वी थियेटर के जरिए
पूरे देश का दौरा किया। राज कपूर भी उनके साथ जाते थे और रंगमंच पर काम भी करते थे। पृथ्वीराजकपूर और राज कपूर दोनों को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
जीवन
परिचय
राज कपूर हिन्दी सिनेमा जगत का वह नाम है, जो पिछले
आठ दशकों से फ़िल्मी आकाश पर जगमगा रहा है और आने वाले कई दशकों तक भुलाया नहीं जा
सकेगा। राज कपूर की फ़िल्मों की पहचान उनकी आँखों का भोलापन ही रहा है। पृथ्वीराज कपूर के सबसे बड़े बेटे
राज कपूर का जन्म 14 दिसम्बर 1924 को पेशावर में हुआ था। उनका बचपन का नाम रणबीर राज
कपूर था। राज कपूर की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई, लेकिन पढ़ाई में उनका
मन कभी नहीं लगा। यही कारण था कि राज कपूर ने 10वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़
दी। इस मनमौजी ने अपने विद्यार्थी जीवन में किताबें बेचकर खूब केले, पकोड़े और चाट
खाई।
सन 1929 में
जब पृथ्वीराज कपूर मुंबई आए,
तो उनके साथ मासूम राज कपूर भी आ गए। पृथ्वीराज कपूर सिद्धांतों के पक्के इंसान थे।
राज कपूर को उनके पिता ने साफ़ कह दिया था कि राजू, नीचे से शुरुआत करोगे तो
ऊपर तक जाओगे। राज कपूर ने पिता की यह बात गाँठ बाँध ली और जब उन्हें सत्रह
वर्ष की उम्र में रणजीत मूवीटोन में साधारण एप्रेंटिस का काम मिला, तो उन्होंने वजन
उठाने और पोंछा लगाने के काम से भी परहेज नहीं किया। काम के प्रति राज कपूर की लगन पंडित केदार शर्मा के
साथ काम करते हुए रंग लाई, जहाँ उन्होंने अभिनय की बारीकियों को समझा। एक बार राज कपूर
ने ग़लती होने पर केदार शर्मा से चाँटा भी खाया था। उसके बाद एक समय ऐसा भी आया, जब
केदार शर्मा ने अपनी फ़िल्म 'नीलकमल' (1947) में मधुबाला के
साथ राज कपूर को नायक के रूप में प्रस्तुत किया।
नीलकमल
केदार शर्मा उस समय के नामचीन निर्देशकों में से एक थे। केदार
शर्मा ने राज कपूर को क्लैपर ब्वॉय के रूप में भरती कर किया। एक दिन की बात है किसी
शॉट को फ़िल्माने के दौरान राज कपूर ने क्लैप को इतनी ज़ोर से टकराया कि अभिनेता की
नकली दाढ़ी उसमें फंसकर बाहर आ गई। केदार शर्मा ने गुस्से में राज कपूर को जोरदार थप्पड़
रसीद कर दिया। थप्पड़ ने अपना काम किया और राज कपूर को बाद में केदार शर्मा के निर्देशन
में ही 'नीलकमल" मिल गई। इस फ़िल्म में मधुबाला उनकी
नायिका थीं।
अभिनय की शुरुआत
राज कपूर ने 1930 के दशक में बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय
और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया, ये दोनों कंपनियाँ उनके पिता पृथ्वीराजकपूर की थीं। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में 'इंकलाब' (1935) और 'हमारी बात' (1943), 'गौरी' (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने
आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म वाल्मीकि (1946), 'नारद और अमरप्रेम' (1948) में कृष्ण की
भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि
वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करे। उनका सपना
24 साल की
उम्र में फ़िल्म 'आग' (1948) के साथ
पूरा हुआ। राज कपूर ने पर्दे पर पहली प्रमुख भूमिका 'आग' (1948) में निभाई, जिसका निर्माण
और निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। इसके बाद राज कपूर के मन में अपना स्टूडियो
बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आर. के. स्टूडियो
की स्थापना की और 1951 में
'आवारा' में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने 'बरसात' (1949), 'श्री 420' (1955), 'जागते रहो'
(1956) व 'मेरा नाम जोकर' (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन
किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके
दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और
तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों
में रूमानी भूमिकाएँ निभाई, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र 'चार्ली चैपलिन' का
ग़रीब, लेकिन ईमानदार 'आवारा' का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत
रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था।
प्रसिद्ध
गीत
राज कपूर की फ़िल्मों के कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए, जिनमें
'मेरा जूता है जापानी', 'आवारा हूँ' और 'ए भाई ज़रा देख के चलो' शामिल हैं।
राज कपूर का प्रिय रंग
बचपन में ही राज कपूर को सफ़ेद साड़ी पहने स्त्री से मोह हो
गया था। इस मोह को उन्होंने अपने जीवन भर बनाए रखा। राज कपूर की फ़िल्मों की तमाम अभिनेत्रियाँ नर्गिस, पद्मिनी, वैजयंतीमाला,
ज़ीनत अमान, पद्मिनी कोल्हापुरे, मंदाकिनी ने परदे पर सफ़ेद साड़ी पहनी है और घर में
इनकी पत्नी कृष्णा ने हमेशा सफ़ेद साड़ी पहनकर अपने शो-मेन के शो को जारी रखा है।
संगीत
संगीत की
राज कपूर को अच्छी समझ थी। राज कपूर को गीत बनने के पहले एक बार अवश्य सुनाया जाता
था। आर. के. बैनर तले राज कपूर ने अपने संगीतकार- शंकर जयकिशन,
गीतकार- शैलेंद्र,
हसरत जयपुरी, विट्ठलभाई पटेल, रविन्द्र जैन, गायक- मुकेश, मन्ना डे,
छायाकार- राघू करमरकर, कला निर्देशक- प्रकाश अरोरा, राजा नवाथे आदि साथियों की टीम
तैयार की। राज कपूर ने फ़िल्मी दुनिया में संगठन का जो उदाहरण दिया है, वह बेजोड़ है।
गायन
राज कपूर ने फ़िल्म 'दिल की रानी' में अपना प्लेबैक पहली बार
खुद दिया था। सन् 1947 में
बनी इस फ़िल्म के संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन थे।
इस फ़िल्म में नायिका की भूमिका मधुबाला ने
की थी। इस फ़िल्म के गीत का मुखड़ा है- ओ दुनिया के रखवाले बता कहाँ गया चितचोर। इसके
अलावा राज कपूर ने फ़िल्म जेलयात्रा में भी एक गीत गाया था।
राज
कपूर और नर्गिस
राज कपूर और नर्गिस ने 9 वर्ष में
17 फ़िल्मों में अभिनय किया। अलगाव के बाद दोनों ही खामोश रहे। उन दोनों की गरिमामयी
खामोशी उस युग का संस्कार थी। सन् 1956 में फ़िल्म 'जागते रहो' का अंतिम
दृश्य नर्गिस की विदाई का दृश्य था। रात भर के प्यासे नायक को मंदिर की पुजारिन पानी
पिलाती है। फ़िल्म की वह प्यास सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक थी। राजकपूर और नर्गिस
के बीच अलगाव की पहली दरार रूस यात्रा के दौरान आई। तब तक 'आवारा' रूस की अघोषित राष्ट्रीय
फ़िल्म हो चुकी थी। राज कपूर का मास्को के ऐतिहासिक 'लाल चौराहे' पर नागरिक अभिनंदन
किया गया। उसी रात राज कपूर ने नर्गिस से कहा 'आई हैव डन इट'। और इसके पूर्व हर सफलता
पर राज कपूर कहते थे 'वी हैव डन इट'। दोनों के पास अहम समान था और अनजाने में कहे गए
एक शब्द ने उनके संबंधों में दरार डाल दी। वर्षों की अंतरंगता पर यह एक शब्द भारी पड़
गया। राज कपूर और नर्गिस जिस तरह अपने प्रेम में महान थे, उसी तरह अपने अलगाव में भी
निराले थे। ऋषि कपूर के विवाह में
25 वर्ष बाद
नर्गिस अपने पति और पुत्र के
साथ आर. के. स्टूडियो आई थीं। उस यादगार मुलाकात में राज कपूर मौन रहे। यहाँ तक कि
राज कपूर की बहुत कुछ बोलने वाली आँखें भी मौन ही रही। कृष्णा जी से नर्गिस ने कहा
कि आज पत्नी और माँ होने पर उन्हें उनकी
पीड़ा का अहसास हो रहा है। किंतु गरिमामय कृष्णा जी ने उन्हें समझाया कि मन में मलाल
न रखें, वे नहीं होती तो शायद कोई और होता। राज कपूर के सफल होने में बहुत-सा श्रेय
कृष्णा जी को जाता है। आज भी वह महिला फ़िल्म उद्योग में व्यवहार का प्रकाश स्तंभ है।
शोमैन
हिन्दी फ़िल्मों में राज कपूर को पहला शोमैन माना जाता है क्योंकि
उनकी फ़िल्मों में मौज-मस्ती, प्रेम, हिंसा से लेकर अध्यात्म और समाजवाद तक सब कुछ
मौजूद रहता था और उनकी फ़िल्में एवं गीत आज तक भारतीय ही नहीं तमाम विदेशी सिने प्रेमियों
की पसंदीदा सूची में काफ़ी ऊपर बने रहते हैं। राज कपूर हिन्दी सिनेमा के
महानतम शोमैन थे जिन्होंने कई बार सामान्य कहानी पर इतनी भव्यता से फ़िल्में बनाईं
कि दर्शक बार-बार देखकर भी नहीं अघाते। प्रसिद्ध फ़िल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज के
अनुसार राज कपूर वास्तविक शोमैन थे। इसके बाद सुभाष घई ने भले ही शोमैन बनने की कोशिश
की लेकिन राजकपूर की बात ही कुछ और थी। भारद्वाज के अनुसार राजकपूर की शुरुआती फ़िल्मों
की कामयाबी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। राज कपूर की 'आवारा', 'श्री 420', 'जिस देश
में गंगा बहती है' आदि फ़िल्मों में समाजवादी सोच विशेष रूप से उभर कर सामने आती है।
चार्ली
चैपलिन का भारतीयकरण
राजकपूर में हमें महान अभिनेता चार्ली चैपलिन की झलक दिखायी
देती है। उन्होंने चैपलिन को भारतीय जामा पहनाया जो बेहद लोकप्रिय और आकर्षक था, जिसने
देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी धाक मनवाई। भारद्वाज के अनुसार राजकपूर
ने महान अभिनेता चार्ली चैपलिन का भारतीयकरण शुरू किया और श्री 420 में यह नए मुकाम
पर पहुँचता दिखता है। उन्होंने चैपलिन की छवि का जो भारतीयकरण किया, उसका अपना आकर्षण
और महत्त्व है।
संयोजक
राजकपूर एक संपूर्ण फ़िल्मकार के रूप में हिन्दी सिनेमा का
महत्त्वपूर्ण हिस्सा बने रहे। उनकी फ़िल्मों में शंकर जयकिशन, ख़्वाजा
अहमद अब्बास, शैलेंद्र,
हसरत जयपुरी, मुकेश, राधू
करमाकर सरीखे नामों की अहम भूमिका रही। यही वजह है कि कई फ़िल्मकार राजकपूर का मूल्यांकन
करते समय उन्हें एक महान संयोजक के रूप में भी देखते हैं।
अलग
छाप
राजकपूर को फ़िल्म की विभिन्न विधाओं की बेहतरीन समझ थी। यह
उनकी फ़िल्मों के कथानक, कथा प्रवाह, गीत संगीत, फ़िल्मांकन आदि में स्पष्ट महसूस किया
जा सकता है। शायद इसकी वजह निचले दर्जे से सफर की शुरुआत थी। राजकपूर के पिता पृथ्वीराजकपूर अपने दौर के प्रमुख सितारों में से थे लेकिन फ़िल्मों में राजकपूर की शुरुआत चौथे
असिस्टेंट के रूप में हुई थी। राजकपूर ने एक साक्षात्कार में कहा था, पिताजी का नाम
मेरे लिए कितना सहायक हुआ यह नहीं मालूम। उन्होंने फ़िल्मों में मुझे चौथे असिस्टेंट
के रूप में भेजा। शायद यही वजह रही कि अपनी फ़िल्मों के हरेक मामले में उनकी अलग छाप
स्पष्ट दिखती है।
उम्मीद
समीक्षकों के अनुसार उनकी फ़िल्मों को मोटे तौर पर दो हिस्सों
में बाँटा जा सकता है। एक ओर प्रेम प्रधान फ़िल्में हैं जिनमें आग, बरसात, संगम, बॉबी
आदि हैं। दूसरी श्रेणी उन फ़िल्मों की है जिनमें स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी के सपने
नज़र आते हैं और आज़ादी के बाद सब कुछ ठीक हो जाने का सपना है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सपनों
के साथ उनकी फ़िल्में एक उम्मीद दिखाती हैं। इस क्रम में श्री 420, बूट पालिश, अब दिल्ली
दूर नहीं, जिस देश में गंगा बहती है, आवारा आदि का नाम लिया जा सकता है।
मेरा
नाम जोकर और आवारा
राजकपूर की महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म मेरा नाम जोकर एक ओर जहाँ
गंभीर और मानव स्वभाव के दर्शन पर आधारित है वहीं आवारा लीक से हटकर फ़िल्म थी। आवारा
उनकी पहली फ़िल्म थी जिसे विदेश में भी खूब पसंद किया गया। इस फ़िल्म में उन्होंने
स्पष्ट रूप से बताया है कि अपराध का ख़ून से कोई संबंध नहीं है और एक भले घर का लड़का
भी अपराधियों की संगत में पड़कर अपराध की दुनिया में उतर जाता है, वहीं अपराधी का बच्चा
भी बेहतर इंसान बन सकता है। यह सोच प्रचलित सोच के विपरीत थी जिसे काफ़ी पसंद किया
गया।
राम
तेरी गंगा मैली
बतौर निर्माता-निर्देशक राज कपूर अंत तक दर्शकों की पसंद को
समझने में कामयाब रहे। 1985 में प्रदर्शित राम तेरी गंगा मैली की कामयाबी
से इसे समझा जा सकता है जबकि उस दौर में वीडियो के आगमन ने हिन्दी सिनेमा को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया
था और बड़ी-बड़ी फ़िल्मों को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल रही थी। राम तेरी गंगा मैली
के बाद वह हिना पर काम कर रहे थे पर नियति को यह मंजूर नहीं था और दादा साहब फाल्के
सहित विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित महान फ़िल्मकार का दो जून 1988 को निधन हो गया।
सच्ची
निष्ठा और प्रेम का सबूत
आज हमारे बीच में राजकपूर नहीं है लेकिन उनकी सोच और विचार ज़रूर
हमारे बीच में हैं, हां इसे समय की मार कहेंगे या दुर्भाग्य, कि आज आर. के. स्टूडियो
की हालत बेहद दयनीय है, आर. के. स्टूडियो ने 'आ अब लौट चले' के बाद कोई फ़िल्म नहीं
बनायी है लेकिन हां अब राजकपूर की नवासी करीना कपूर ने फ़िर से आर. के. स्टूडियो यानी
राजकपूर के सपने को ज़िंदा करने की कोशिश की है। खबर है कि करीना स्टूडियो को फ़िर
से चलाने जा रही है और राजकपूर के बेटे ऋषि कपूर एक फ़िल्म डायरेक्ट करने जा रहे हैं
जिसमें उनके बेटे रणबीर कपूर लीड रोल में होंगे। चलिए देर से सही लेकिन कपूर ख़ानदान
ने ये क़दम उठाया जो वाकई में तारीफ़े काबिल है। जो उनका अपने प्रिय पिता और
शो मैन राजकपूर के प्रति सच्ची निष्ठा और प्रेम का सबूत है।
आशावाद
निर्णयी
राज कपूर के चरित्र चाहे सीधे-सादे गाँव वाले के हों, चाहे
मुम्बइया चॉल-वासी स्मार्ट युवा के, वह एक ऐसा आम हिन्दुस्तानी था कि सीधा-पन
और अपने सामाजिक-भावनात्मक मूल्यों के प्रति उसका लगाव छ्लकता था। उसकी आँखों-बातों
से और उसके किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर लिए जाने वाले निर्णय से उनका लगाव दिखता
था। राज कपूर का निर्णय हमेशा आशावाद से भरा और मानवता की जीत का होता था, भले ही व्यक्तिगत
हार या तत्कालिक नुकसान अवश्यम्भावी हो। अपनी इसी पहचान को एक आम 'हिन्दुस्तानी'
की छवि से सफलतापूर्वक जोड़ कर, राज कपूर ने एक ऐसे नायक को जिया जो सुपरमैन नहीं
था, जिसे अपनी थाती, मूल्यों और ज़मीन से प्यार था। जो दस-बीस आदमियों को पीट नहीं
पाता था, लेकिन 'सही' के पक्ष में रह कर पिट जाने से क़दम पीछे भी नहीं करता था।
ऐसी सहानुभूति जुटाना सबके लिए सुलभ नहीं था, और यहाँ तक कि
जब "संगम" में राजकपूर का चरित्र अपनी सीधी-सच्ची खिलंदड़ेपन से जुड़ी मुहब्बत
लुटाता है नायिका पर, जो पहले ही अन्य नायक (राजेन्द्रकुमार) की मुहब्बत में गिरफ़्तार
है, तो प्रचलन के अनुसार देखें तो राजकपूर को दो के बीच आने वाला तीसरा बनना चाहिए
था, मगर सहानुभूति दर्शकों की उन्हीं के साथ रहती है; लोग नायिका पर और पहले नायक पर
कुढ़ते हैं कथानक के हर नए विस्तार के साथ कि ये लोग इसे (राजकपूर को) सब साफ़-साफ़
बताते क्यों नहीं, धोखा क्यों दे रहे हैं इसे? यानी जो "तीसरा" बनने
वाला था 'दो' के बीच, वही बेचारा है, सहानुभूति उसी के साथ है!
राज
कपूर और रणबीर कपूर में समानता
राजकपूर और रणबीर कपूर में एक समानता है। दोनों जिस डायरेक्टर
के असिस्टेंट थे, दोनों ने उसी डायरेक्टर की फ़िल्म से एक्टिंग कैरियर की शुरुआत की।
सभी जानते हैं कि राजकपूर ने स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की थी। वे केदार शर्मा के
असिस्टेंट रहे और सन् 1944 में
उन्हीं की फ़िल्म 'नीलकमल' से बतौर एक्टर दर्शकों के सामने आए। 1947 में उन्होंने आर.
के. फ़िल्म्स एंड स्टूडियो की स्थापना की। रणबीर भी अपने दादा की तरह संजय लीला
भंसाली के सहायक रहे और फ़िर उनकी ही फ़िल्म सांवरिया से बतौर एक्टर दर्शकों के
सामने आए।
जीवन एक रंगमंच
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार...
जीना इसी का नाम है...
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार...
जीना इसी का नाम है...
राजकपूर पर फ़िल्माया गया यह गीत हमारे जीवन पर बिलकुल सटीक
बैठता है। जीवन एक ऐसा रंगमंच है।
जहाँ पर जीना-मरना, उठना-बैठना, रोना-गाना सभी कुछ साथ-साथ चलता रहता है, लेकिन फ़िर
भी इन सबके बावज़ूद आदमी जीने को मजबूर है। वह चाहकर भी इस रंगमंच के स्टेज से उतरकर
भाग नहीं सकता, कहीं दूर जा नहीं सकता, ज़्यादा दिन इससे अपना पीछा छुड़ा नहीं सकता।
यह एक परम सत्य है। जीवन में कई मुश्किलें रोजाना हमारे सामने आती रहती हैं। एक खत्म
करो तो पलक झपकने से पहले ही दूसरी मुश्किल हमारे जीवन के दरवाज़े पर मुँह बाए खड़ी
हो जाती है। लेकिन फिर भी उन सबका मुक़ाबला करके, उन सभी आने वाली मुश्किलों का सामना
करके इस रंगमंच पर खरे उतरना ही सच्ची मानवता की निशानी है।
फ़िल्म
निर्माण के क्षेत्र में क़दम
अंदाज़ के
बाद राज कपूर ने निर्माण के क्षेत्र में क़दम रखा और आवारा (1951), श्री 420
(1955), चोरी-चोरी (1956), जिस देश में गंगा बहती है (1960) जैसी सफल फ़िल्में बनाईं।
इन फ़िल्मों ने राज कपूर को चार्ली चैपलिन वाली भारतीय इमेज दी।
इन सभी फ़िल्मों में राज कपूर ने आम आदमी का बखूबी चित्रण किया
है। उनकी फ़िल्मों में फुटपाथ पर रहने वाले, फेरी लगाने वालों को आसानी से देखा जा
सकता था। राज कपूर अक्सर महंगे होटलों और रेस्तरां के बजाए छोटे-छोटे ढाबों पर जाते
और लोगों से बात करते और उसी आधार पर अपने फ़िल्मों के चरित्र गढ़ते थे। राज कपूर ने
हमेशा आम आदमी के लिए फ़िल्में बनाई। 1960 के दशक में उन्होंने 'संगम' बनाई।
जिसके निर्माता-निर्देशक वे स्वयं थे। फ़िल्म में राजेंद्र कुमार, वैजयंतीमाला और
स्वयं राज साहब केंद्रीय भूमिका में थे। यह उनकी पहली रंगीन और नायक के तौर पर आख़िरी
हिट फ़िल्म थी। इसके कुछ सालों के बाद उन्होंने अपनी महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म 'मेरा
नाम जोकर' शुरू की। यह फ़िल्म क़रीब छह सालों में पूरी हुई। फ़िल्म बनाने में काफ़ी
पैसा भी खर्च हुआ। लेकिन 1970 में
जब फ़िल्म रिलीज हुई तो यह बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी। राज कपूर के लिए यह बहुत
बड़ा झटका था। क्योंकि यह उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था। ऐसा कहा जाता है कि फ़िल्म की कहानी
उनके निजी जीवन से प्रेरित थी। फ़िल्म की लंबाई भी काफ़ी चर्चा का विषय थी। ऐसा कहा
जाता है कि जब यह फ़िल्म बनी तो इसकी लंबाई क़रीब पाँच घंटे की थी। इसकी अंतराष्ट्रीय
स्तर पर रिलीज की गई डी.वी.डी. में लम्बाई क़रीब 233 मिनट रखी गई है जबकि भारतीय दर्शकों
के लिए इसमें 184 मिनट की फ़िल्म काट दी गई। यह ऋषि कपूर की पहली फ़िल्म थी। 'मेरा
नाम जोकर' के पिटने से राज कपूर को इतना घाटा हुआ था कि एक बार तो उन्होंने कर्ज़ चुकाने
के लिए 'आर. के. स्टूडियो' को नीलाम करने की तक सोच डाली थी।
इतना होने के बाद भी फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार शंकर जयकिशन,
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक राज कपूर, सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफ़ी राध करमरकर, सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक मन्ना डे (ऐ
भाई जरा देख के चलो...) और सर्वश्रेष्ठ साउंड रिकॉर्डिंग अलाउद्दीन ख़ान कुरैशी को
फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। यह उस समय की मेगा स्टार फ़िल्म थी, जिसमें राज कपूर के अलावा, धर्मेंद्र, मनोज कुमार,
सिमी ग्रेवाल, दारा सिंह,
पद्ममिनी, राजेंद्र कुमार,
अचला सचदेव, ऋषि कपूर और रशियन अदाकारा सोनिया प्रमुख थीं।
सम्मान
और पुरस्कार
राज कपूर को सन् 1987 में दादा
साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था। राज कपूर को कला के क्षेत्र
में भारत सरकार द्वारा, सन् 1971 में पद्म भूषण से
सम्मानित किया गया था।
मृत्यु
2 मई, 1988 को एक पुरस्कार समारोह के दौरान, जिसमें
राज कपूर को भारतीय फ़िल्म उद्योग का सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के' पुरस्कार
प्रदान किया गया, राज कपूर को दमे का भयंकर दौरा पड़ा और वह गिर गए। ज़िंदगी और मौत
के बीच वे एक माह तक संघर्ष करते रहे। अंत में 2 जून, 1988 को
उनका देहावसान हो गया। इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है कि 3 मई, 1980 को नर्गिस का देहांत हुआ और राज कपूर को अस्थमा
का दौरा 2 मई को पड़ा। साल भले ही अलग हों पर इन
दोनों की मृत्यु के बीच की तारीखें तो काफ़ी क़रीब थीं।
राज कपूर स्वयं हाईस्कूल पास नहीं कर पाए थे, तो क्या हुआ। आज
उनके बनाए पुणे के 'लोनी हाई स्कूल' में हज़ारों बच्चे
हर साल उत्तीर्ण हो रहे हैं। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह एक ऐसा परिवार है, जिसे फ़िल्म का सर्वोच्च 'दादा
साहेब फालके पुरस्कार' दो बार मिला है। इस परिवार की चार पीढ़ियाँ फ़िल्मी क्षेत्र
में अपनी सेवाएँ दे रही हैं। ऋषि कपूर के बेटे रणवीर कपूर, रणधीर कपूर की बेटियाँ करिश्मा
कपूर और करीना कपूर ने इस परंपरा को बनाए रखा है। आर. के. स्टूडियो भले ही परिस्थितिवश
बदहाली में हो, किंतु भाई शशि कपूर ने 'पृथ्वी थियेटर' को अपने बच्चों
के हाथों सौंपकर पिता की विरासत को सहेजे रखा है।
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