Monday 6 July 2020

पुलिस सुधार तथा महत्वपूर्ण न्यायिक कर्ता

तमिलनाडु राज्य के ‘तुथुकुडी’ जिले ‘सथानकुलम’ शहर में एक पिता और पुत्र की कथित तौर पर पुलिस हिरासत में प्रताड़ित किये जाने से मौत हो गयी, जिससे ‘पुलिस सुधार तथा न्यायपालिका की भूमिका’ विषय चर्चा के केंद्र में आ गया है।

इस तरह की बार-बार होने वाली घटनाएं एक महत्वपूर्ण सवाल भी उठाती हैं:

“पुलिस द्वारा ‘सच’ की खोज के लिए ‘जांच’ के नाम पर और कितनी बार बेबस नागरिकों को लाठी या डंडे की मार, जूतों की ठोकर, पुलिस लॉकअप में घंटो की बेवजह कैद तथा निजी अंगों पर लकड़ी के बेलन से उत्पीडन झेलना पड़ेगा?”

न्यायपालिका की भूमिका:

सदैव की भांति, जब भी बात-चीत की दिशा इस दिशा में मुडती है, तो स्वाभाविक रूप से न्यायपालिका की ओर ‘उम्मीद तथा कार्यवाही’ के स्रोत के रूप में निगाहें उठ जाती हैं।

‘मदुरै उच्च न्यायालय’ ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लिया है तथा स्थिति की “बारीकी से निगरानी” कर रहा है।

इस विषय पर उच्चत्तम न्यायालय द्वारा उठाये गए कदम

उच्चत्तम न्यायालय ने 1990 के दशक में इस विषय पर, जोगिंदर कुमार बनाम उत्तरप्रदेश राज्य [एआईआर 1994 एससी 1349] तथा डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य [(1997) 1 SCC 416] जैसे मामलों के माध्यम से कई बार हस्तक्षेप किया है। इन मामलों में राज्य द्वारा की गयी कार्यवाही के संदर्भ में दो अधिकारों को सुरक्षित करने हेतु दिशा-निर्देश जारी किये गए थे:

  1. जीवन का अधिकार (A right to life)
  2. जानने का अधिकार (A right to know)

इन दिशानिर्देशों के माध्यम से, अदालत ने गिरफ्तार करने की शक्ति पर अंकुश लगाने तथा आरोपी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी से संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारीयों से अवगत कराये जाने, तथा गिरफ्तारी कि दशा में आरोपी के सगे-संबंधियों को सूचित किये जाने को सुनिश्चित किया।

इन न्यायिक दिशानिर्देशों को दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम’, 2008 के माध्यम से वैधानिक आधार प्रदान किया गया, तथा यह कानून का हिस्सा बन गए है।

अंततः, ‘प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ’ (2006) मामले में, न्यायालय ने समस्त भारत के राज्यों को पुलिस बलों को नियंत्रित करने हेतु नए विधान पारित करने के लिए कहा। इन नए विधानों के अंतर्गत अन्य प्रावधानों के अतिरिक्त, शिकायत समाधान प्रणाली हेतु जबावदेही के लिए मजबूत ढांचा स्थापित किया गया।

पुलिस हिंसा को कम करने हेतु न्यायपालिका की अन्य निर्देश

  1. ‘वैज्ञानिक’ जांच हेतु समर्थन।
  2. ‘नार्को-एनालिसिस’ जैसी तकनीकों के लिए प्रोत्साहन, जांच की वीडियो रिकॉर्डिंग सुनिश्चित करना।
  3. पुलिस स्टेशनों के अंदर क्लोज-सर्किट टेलीविज़न कैमरे लगाने हेतु आदेश।

पुलिस हिंसा पर अंकुश लगाने में न्यायिक हस्तक्षेप की विफलता का कारण

न्यायपालिका का मात्र दिशानिर्देश पारित करने का दृष्टिकोण विफल साबित हुआ है।

  • इसके लिए, साधारण मजिस्ट्रेट नहीं बल्कि संवैधानिक न्यायलय को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है, जिसके पास, पुलिस प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तनों को लागू करने के लिए वास्तविक शक्ति होती है।
  • भारत में सर्वोच्च न्यायालय तथा निचले स्तर के पुलिस अधिकारी के बीच अंतर को कई अध्ययनों में रेखांकित किया गया है। इन अध्ययनों से पाता चलता है, कि किस प्रकार, असंवैधानिक घोषित किये जाने के बाद भी, देश के विभिन्न भागों में स्थानीय पुलिस द्वारा ‘आपराधिक कानूनों’ को लागू किया जाता है।

आगे की राह

  • मात्र दिशानिर्देशों को पारित करने में ऊर्जा व्यय करने के बजाय, संवैधानिक न्यायालयों को गंभीरता से उन मामलों, जो आम आदमी के लिए पुलिस हिंसा के विरुद्ध न्याय प्राप्त करने में होने वाली कठिनाई को उजागर करते हैं, को अभियोजन अथवा क्षतिपूर्ति दावों के माध्यम से सख्ती से निपटना चाहिए।
  • न्यायालयों को उस संस्थागत बोझ से मुक्त होना चाहिए, जिसके कारण अक्सर उन्हें पुलिस के कथित कमजोर मनोबल की रक्षा करनी होती है।
  • यह व्यापक स्तर पर प्रतिबंधों को लागू करने और जिला स्तर पर मौद्रिक दंड लगाने का समय है, इसके माध्यम से यह संदेश प्रेषित किया जाए कि एक अधिकारी के गलत कार्यों को फ़ोर्स की विफलता के रूप में देखा जायेगा।

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