Sunday, 28 June 2020

भारतीय दंड संहिता की धारा 309 (Sec 309 IPC)

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट, 2019 के अनुसार, दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र में भारत की आत्महत्या दर सर्वाधिक है।

  • decriminalizing

    • रिपोर्ट के अनुसार, भारत की आत्महत्या दर प्रति 100,000 लोगों पर 16.5 आत्महत्या है।
    • विश्व में तीसरी सर्वाधिक महिला आत्महत्या दर (14.7) भारत की है।

    वर्ष 2017 में भारत में आत्महत्या को गैर-अपराधिक कृत्य घोषित किया गया था, परन्तु, भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- IPC) की धारा 309 अभी समाप्त नहीं हुई है।

    IPC की धारा 309 के अंतर्गत किसे अपराधी घो


    षित किया जा सकता है?

    भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अनुसार, जो भी कोई आत्महत्या करने का प्रयत्न करेगा, उसे अपराधी घोषित कर निर्धारित सजा से दण्डित किया जाएगा।

    धारा 309 के अनुसार, आत्महत्या करने का प्रयत्न, एक जमानती, संज्ञेय अपराध है और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

    सजा – एक वर्ष सादा कारावास या आर्थिक दण्ड या दोनों।

    इस क़ानून को 19 वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा ला


    या गया था। यह कानून उस समय की सोच को दर्शाता है, जब हत्या अथवा आत्महत्या का प्रयास राज्य तथा ही धर्म के खिलाफ अपराध माना जाता था।

    क्या इस क़ानून को निरस्त किया गया है?

    नहीं, भारतीय दंड संहिता की धारा 309 अभी तक लागू है।

    हालांकि संसद द्वारा मानसिक स्वास्थ्य विधेयक (Mental Health Care Bill- MHCA), 2017 को पारित किया गया, जो जुलाई 2018 से प्रभावी हुआ है।

    MHCA ने IPC की धारा 309 के उपयोग की गुंजाइश को


     काफी कम कर दिया है – और आत्महत्या को केवल एक अपवाद के रूप में दंडनीय बनाने का प्रयास किया है।

    MHCA की धारा 115 (1) के अनुसार: “भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के बावजूद, यदि कोई भी व्यक्ति आत्महत्या करता है, जब तक साबित न हो जाए, उसे अवसाद ग्रस्त समझा जाएगा तथा उपरोक्त क़ानून के तहत अभियुक्त नहीं होगा और न ही दण्डित किया जायेगा”।

    सरकार की भूमिका तथा जिम्मेदारी

    MHCA की धारा 115 (2) के अनुसार, 


    “उपयुक्त सरकार का कर्तव्य होगा कि, वह आत्महत्या का प्रयास करने वाले अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को उचित देखभाल, पुनर्सुधार तथा उपचार प्रदान करे ताकि आत्महत्या के प्रयास की पुनरावृत्ति के खतरे को कम किया जा सके“।

    धारा 309 से संबंधित विषय तथा चिंताएँ

    1. इस धारा के उपयोग, पीड़ित व्यक्ति को महत्वपूर्ण समय (golden hour) में इलाज से वंचित कर सकता है, क्योंकि “मेडिको-लीगल केस” होने के कारण अस्पताल को, उपचार शुरू करने हेतु पुलिस की अनुमति की आवश्यकता होती है।

    2. बेईमान अस्पताल अधिकारियों द्वारा इस स्थिति का दुरुपयोग की संभावना होती है, वे पुलिस को न करके मामले को “बंद” करने के लिए अतिरिक्त शुल्क की मांग कर सकते हैं; भ्रष्ट पुलिस कर्मियों द्वारा भी इसी तरह की जबरन वसूली किये जाने की संभावना रहती है।
    3. पहले से ही अवसाद ग्रस्त व्यक्ति तथा उसके संबंधियों के लिए उनकी वर्तमान समस्याओं के अतिरिक्त आघात और उत्पीड़न झेलना पड़ सकता है।

    धारा 309 को जारी रखने के पक्ष में तर्क

    ऐसे कई मामले देखे गए है, कि जब लोग सरकारी दफ्तरों में अपनी मांगों के पूरा न होने पर आत्महत्या की धमकी देते है। इन मामलों में, जब पुलिस को संदेह होता है कि, यह व्यक्ति वास्तव मी आत्महत्या करने का इरादा नहीं रखता है, बल्कि आत्महत्या की धमकी को गलत तरीके से सिस्टम पर दबाव बनाने अथवा ब्लैकमेल करने के लिए कर रहा है। ऐसी घटनाओं के दौरान इस धारा का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।

    यदि धारा 309 को निरस्त किया जाता है, तो इ

    स तरह की परेशानी पैदा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का कोई प्रावधान नहीं होगा।

    समय की मांग

    IPC की धारा 309 को इस ढंग से पुनः परिभाषित किया जा सकता है कि इसका इसका उपयोग कानून और व्यवस्था बनाये रखने में किया जा सके तथा साथ ही इसे वास्तविक मानसिक तनाव व समस्याओं से पीड़ित व्यक्तियों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सके।

    उच्चत्तम न्यायालय तथा विधि आयोग के फैसले

    ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य,1996 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने धारा 309 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।

    वर्ष 1971 में, विधि आयोग ने अपनी 42 वीं रिपोर्ट में आईपीसी की धारा 309 को निरस्त करने की सिफारिश की थी। राज्य सभा द्वारा आईपीसी (संशोधन) विधेयक, 1978 पारित कर दिया गया था, परन्तु, लोकसभा द्वारा पारित किया जाने से पहले संसद भंग हो गई तथा विधेयक व्यपगत हो गया।

    वर्ष 2008 में, विधि आयोग ने अपनी 210 वीं रिपोर्ट में कहा कि आत्महत्या के प्रयास करने वाले व्यक्ति के लिए चिकित्सा और मनोरोग देखभाल की जरूरत होती है

    न कि सजा की।

    मार्च 2011 में, सुप्रीम कोर्ट ने भी संसद से इस धारा को हटाने की व्यवहार्यता पर विचार करने की सिफारिश की थी।

    उद्धरण (Quote)

    प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम (Emile Durkheim) की प्रसिद्ध अवधारणा है कि आत्महत्याएं केवल मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक कारकों का परिणाम नहीं होती है, अपितु इनमे सामाजिक कारकों का भी योगदान होता हैं‘।

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