- राज्य-केंद्रवाद (State-centrism), किसी राज्य को, राष्ट्र-राज्य (Nation States) की क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर, विभिन्न समुदायों अथवा क्षेत्रों के मध्य किसी विवाद के उत्पान होने पर एकमात्र निर्णायक होने का अधिकार प्रदान करता है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, ‘राज्य’ वह होता है, अन्य राज्यों के साथ वार्ता में “राष्ट्रीय” हितों को स्पष्ट, परिभाषित तथा प्रतिनिधित्व करता है।
चर्चा का कारण
दक्षिण एशियाई राजनीति को देखते हुए, ‘कालापानी विवाद’, जैसे सीमा-विवादों का ‘समाधान करने’ के बजाय ‘नियंत्रित’ (Handle) किये गए हैं।
यहां पर मुख्य समस्या यह है कि संबधित फैसले ‘राज्य-केंद्रित प्रतिमानों’ (State-Centric Paradigm) के अनुसार लिए जाते है।
- इन निर्णयों में, विवादित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तथा उनकी भावनाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
- प्रायः, राष्ट्र-राज्य के सीमाओं पर रहने वाले लोगों के जीवन, उनकी जीविका तथा उनकी भलाई से क्षेत्रीय सीमाओं को अधिक मूल्यवान तथा महत्वपूर्ण माना जाता है।
निर्णयकर्ता भूल जाते हैं कि इन स्थानों पर देश न केवल सांस्कृतिक और सभ्यतागत पृष्ठभूमि को साझा करते हैं, बल्कि एक ‘आधिकारिक’ मान्यता प्राप्त खुली सीमा भी होती है।
समय की मांग:
दक्षिण एशिया संभवतः समस्त विश्व में राज्यों का सबसे प्राकृतिक क्षेत्रीय समूह है। और साथ ही, यह सबसे जटिल तथा विवादित समूहन भी है।
दक्षिण एशिया को ‘एक राज्यों के क्षेत्र’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘विभिन्न क्षेत्रों का क्षेत्र’ के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है।
यह एक ऐसी भूमि है जहां ‘संपर्क क्षेत्र’ संबधित सदस्य-राज्यों द्वारा साझा क्षेत्रीय सीमाओं की सीमाओं से परे मौजूद होने चाहिए।
‘किस क्षेत्र में किस राज्य द्वारा और किस आधार पर “अतिक्रमण” किया गया है?‘ ऐसे “परेशान करने वाले” सवालों के इर्द-गिर्द घूमती साधारण बहसों से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
ऐसा इसलिए आवश्यक है क्योंकि इस तरह के सवाल उन लोगों को सर्वाधिक परेशान करते हैं जो उन क्षेत्रों में सामान्य जीवन-यापन करते हैं।
- एक प्रकार से, दक्षिण एशिया में ‘राष्ट्र-राज्यों’ के सीमावर्ती क्षेत्रों के निवासी वास्तव में किसी एक राष्ट्र-राज्य से संबंधित नहीं होते हैं।
- दूसरे शब्दों में, वे एक साथ दोनों राज्यों से संबंधित होते हैं।
बहुलता, भिन्नता और समावेशिता सीमावर्ती सत्ता मीमांसा हेतु सम्बद्धता प्रदान करती है; ये राष्ट्र विशेषाधिकार को व्यक्त करने वाले तत्वों, यथा: व्यष्टिक, एकीकरणीय, विशिष्ट पहचान आदि तर्कों की उपेक्षा करते है।
आगे की राह:
भारत और नेपाल दोनों, तथा ऐसे मामलों में, अन्य दक्षिण एशियाई देशों को “क्षेत्रीय सहयोग” की नई भाषा की प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करने से पहले दक्षिण एशिया को ‘क्षेत्रों के एक क्षेत्र’ के रूप में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
‘क्षेत्र और क्षेत्रीय पहचान’ दक्षिण एशिया में मात्र “व्यावहारिक राजनीति” के मुद्दे नहीं हैं; बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि आधिकारिक तौर पर राजनीति करने के बजाय, स्वाभाविक रूप से तैयार किए गए उपायों को समायोजित किया जाय।
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