उच्चत्तम न्यायालय द्वारा, व्यभिचार (Adultery) को गैर-अपराध घोषित करने संबंधी वर्ष 2018 के निर्णय की समीक्षा करने से इंकार कर दिया गया है।
वर्ष 2018 का फैसला
उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में एक संवैधानिक पीठ द्वारा वर्ष 2018 में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक ठहराया गया था है, जिसके तहत व्यभिचार (Adultery) एक आपराधिक कृत्य माना जाता था।
संवैधानिक पीठ के अनुसार, यह कानून महिलाओं की व्यक्तिकता को ठेस पहुंचाता है तथा महिलाओं को ‘पतियों की संपत्ति’ बनाता है।
- यदि रिश्ते में कोई एक व्यक्ति दूसरे को धोखा देता है, तो वे आपस में अलग हो सकते हैं, लेकिन बेवफ़ाई (Infidelity) को अपराध के साथ जोड़ना उचित नहीं है।
- न्यायालय का तर्क था कि इस दावे के पक्ष में कोई डेटा मौजूद नहीं है कि व्यभिचार को गैर-अपराध घोषित करने से ‘यौन नैतिकता में अराजकता’ अथवा तलाक की संख्या में वृद्धि हो जायेगी।
धारा 497 को निरस्त करने के कारण
- धारा 497, महिलाओं को अधीनस्थ स्थिति बनाए रखती है तथा गरिमा, यौन स्वायत्तता से वंचित करती है, और लैंगिक रूढ़िवादी विचारधारा पर आधारित है।
- धारा 497, महिलाओं को चल संपति समझते हुए, उनकी कामुकता को नियंत्रित करने का प्रयास करती है तथा महिलाओं की स्वायत्तता और प्रतिष्ठा को ठेस पहुचाती है।
- ये संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) का भी उल्लंघन करती है।
व्यभिचार पर उच्चत्तम न्यायालय के फैसले:
व्यभिचार संबंधी कानून पर, अतीत में तीन बार – 1954 में, 1985 में और 1988 में न्यायालय में निर्णय दिए गए है।
- वर्ष 1954 में, उच्चत्तम न्यायालय ने धारा 497 द्वारा ‘समानता के अधिकार’ के उल्लंघन को अस्वीकार कर दिया था।
- वर्ष 1985 में, यह कहा गया कि महिलाओं को कानून में शिकायतकर्ता पार्टी के रूप में शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।
- वर्ष 1988 में, उच्चत्तम न्यायालय ने कहा कि व्यभिचार कानून “तलवार के बजाय ढाल” है।
समीक्षा याचिका क्या है और इसे कब दायर किया जा सकता है?
संविधान के अनुच्छेद 137 के अंतर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान की गई है। इसके तहत, उच्चतम न्यायालय अपने किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा कर सकता है।
समीक्षा का विषय-क्षेत्र:
उच्चत्तम न्यायालय द्वारा किसी निर्णय की समीक्षा किये जाने हेतु, प्रावधान यह होता है कि, इसमें मामले से संबंधित किसी नए तथ्य को सम्मिलित नहीं किया जाए बल्कि गंभीर त्रुटियों के कारण हुई न्यायिक विफलता में सुधार किया जाए।
समीक्षा याचिका में उच्चत्तम न्यायालय अपने पूर्व के निर्णयों में निहित ‘स्पष्टता का अभाव’ तथा ‘महत्त्वहीन’ गौण त्रुटियों की समीक्षा कर उनमें सुधार कर सकता है।
वर्ष 1975 के एक फैसले में, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा था कि एक ‘समीक्षा याचिका को तभी स्वीकार किया जा सकता है जब न्यायालय द्वारा दिये गए किसी निर्णय में भयावह चूक या अस्पष्टता जैसी स्थिति उत्पन्न हुई हो।‘
वर्ष 2013 के एक फैसले में, उच्चत्तम न्यायालय ने अपने निर्णय की समीक्षा करने के तीन आधार स्पष्ट किये थे-
- नए और महत्त्वपूर्ण साक्ष्यों की खोज, जिन्हें पूर्व की सुनवाई के दौरान शामिल नहीं किया गया था। जो पहले याचिकाकर्ता के संज्ञान में नहीं थे, अथवा उसके द्वारा पर्याप्त प्रयासों के बाद भी न्यायालय में उपस्थित नहीं किये जा सके हो।
- दस्तावेज़ में कोई त्रुटि अथवा अस्पष्टता रही हो।
- कोई अन्य पर्याप्त कारण, अर्थात् ऐसा कोई कारण जो अन्य दो आधारों के अनुरूप हो।
समीक्षा याचिका कौन दायर कर सकता है?
नागरिक प्रक्रिया संहिता और उच्चतम न्यायालय के नियमों के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो फैसले से असंतुष्ट है, समीक्षा याचिका दायर कर सकता है भले ही वह उक्त मामले में पक्षकार हो अथवा न हो। न्यायालय प्रत्येक समीक्षा याचिका पर विचार नही करता है। न्यायालय समीक्षा याचिका को कोई महत्त्वपूर्ण आधार दिखने पर ही अनुमति देता है।
समीक्षा याचिका दायर किये जाने की समयावधि:
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1996 के नियमों के अनुसार:
- समीक्षा याचिका निर्णय की तारीख के 30 दिनों के भीतर दायर की जानी चाहिये।
- कुछ परिस्थितियों में, याचिकाकर्ता द्वारा देरी के उचित कारणों को न्यायालय के समक्ष पेश करने पर, न्यायालय समीक्षा याचिका दायर करने की देरी को माफ़ कर सकती है।
समीक्षा याचिका हेतु अपनाई जाने वाली प्रक्रिया:
- न्यायालय के नियमों के अनुसार, ‘समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई वकीलों की मौखिक दलीलों के बिना की जाएगी’। सुनवाई न्यायधीशों द्वारा उनके चैम्बरों में की जा सकती है।
- समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई, व्यवहारिक रूप से न्यायाधीशों के संयोजन से अथवा उन न्यायधीशों द्वारा भी की जा सकती है जिन्होंने उन पर निर्णय दिया था।
- यदि कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्त या अनुपस्थित होता है तो वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुए प्रतिस्थापन किया जा सकता है।
- अपवाद के रूप में, न्यायालय मौखिक सुनवाई की अनुमति भी प्रदान करता है। वर्ष 2014 के एक मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “मृत्युदंड” के सभी मामलों संबधी समीक्षा याचिकाओं पर सुनवाई तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा खुली अदालत में की जाएगी।
No comments:
Post a Comment